पिछला भाग पढ़े:- पंजाब की सरदारनियां-1
गुज़रते दिनों के साथ अब जस्मीन बैंक के काम को काफी हद तक समझ चुकी थी, और वो रोज ही संतोष के कहे मुताबिक उसके लिए दही और लस्सी ले जाया करती।
दूसरी तरफ धीरे-धीरे गेहूं की कटाई का समय भी नजदीक आ रहा था। तो बलवंत सिंह बार-बार खेतों में जा कर चेक करता रहता, की कही कोई बीमारी या कीट तो गेहूं को नहीं खा रहे।
एक दिन ऐसे ही बलवंत सिंह अपने घर बैठा था, कि बाहर से एक आवाज आई, “बलवंत घर ही है?”
बलवंत सिंह ने उठ के गेट दी तरफ देखा तो पिंड (गांव) का सरपंच खड़ा था, और साथ में पंचायत मेंबर भी।
“ओह आ जाओ सरपंच साब, आ जाओ, घर ही हूं”। बलवंत सिंह ने भी आगे से आवाज दी, और गेस्ट रूम में सभी को अंदर बिठा लिया।
“ओह राज कौरे, चाह पानी ला भई, सरपंच साब आए ने मेंबर नाल”। बलवंत ने राजवंत कौर को आवाज़ दी।
“होर सुनाओ सरपंच साब आज पूरी पंचायत लेके यहां कैसे”? बलवंत ने सरपंच की तरफ देख के कहा
“ओह यार तुम्हे पता ही है कि इलेक्शन आ रहे ने ग्राम पंचायत दे। बस उसी सिलसिले में आए है”। सरपंच ने आराम से बैठते हुए कहा।
“हां, वो तो मैं जानता हूं, पर इसमें यहां आने की क्या जरूरत पड़ गई”? बलवंत ने सरपंच को देख के पूछा।
“जरूरत इस तरह बलवंत, कि सरपंच जी इस बार इलेक्शन नहीं लड़ रहे, और हम चाहते है कि हमारी पार्टी की तरफ से तुम इलेक्शन में कागज दखल करो”। दूसरी तरफ से एक व्यक्ति बोला।
“ओह नहीं यार, नहीं सरपंच सांब, तुसी आए, इतना मान दिया, उसका धन्यवाद। पर मैं इलेक्शन नहीं लड़ सकता जी”। बलवंत ने जवाब देते हुए कहा।
इतने में राजवंत कौर ने चाय के कप एक ट्रे में टेबल पर रखे, और चली गई।
“देख, तुम जितनी ना कर लो, इलेक्शन लड़ रहे हो इस बार, मेरी डिस्ट्रिक्ट प्रेसिडेंट से भी बात हो गई है, और हमारी सब की राय भी यही है”। सरपंच ने बलवंत को देख कर एक टूक जवाब देते हुए कहा।
“पर सरपंच साब खेत का काम, मुंडा अभी पढ़ाई कर रहा है, और मैं अकेला जी किस किस तरफ दौडूंगा”? बलवंत सिंह लाचार नजरों से देख कर बोला।
“लै दस्सो, खेत दा ही काम है, कोई बिहारी भईया ढूंढ देते है, घर का और खेत का सारा काम संभाल लेगा”। बलवंत के साथ बैठा व्यक्ति हंस कर बोला।
“देख बलवंत, हमारी लिहाज है और अब ये तेरे हाथ में है, तू इलेक्शन लड़ेगा तो ठीक वरना भाई हम नाराज है तुमसे, और यार क्या काम-काम लगा रखी है, मेंबर साब ने सही कहा, ओह मेंबर साब, ढूंढ दियो कोई बिहारी इसे”। सरपंच ने भी मेंबर को देख के कहा।
“कर तो आप धक्का ही रहे हो सरपंच साब। पर क्या करूं, मैं आपका कहा टाल भी नहीं सकता”। कहते हुए बलवंत सिंह ने भी अब हामी भर दी।
बलवंत सिंह की इस बात पर सब हंस पड़े और चाय पीने लगे। सभी बैठे चाय पी रहे थे कि बलवंत का छोटा भाई गुलवंत सिंह (50) भी वहा आ जाता है।
“सत श्री अकाल जी सारेया नू”। गुलवंत ने अंदर आ कर सब को कहा।
“ओए आ भई गुल्लू, और बता कैसा है”? सरपंच ने गुलवंत से कहा।
“ठीक हा सरपंच साब और सुनाओ आज फौजें यहां कैसे भई? क्या मसला हो गया जो पूरी पंचायत ले के आ गए आप”? गुलवंत हसते हुए सरपंच को देख कर मजाक करता हुआ बोला।
“ओए आजा गुलवंतिआ आजा, तेरी ही कमी थी यहां, मैं भी सोचूं आज टपूसी मार (शरारती और हसमुख) दिखाई नहीं दे रहा”। चाय पीते हुए एक आदमी बोला और सभी हसने लगे।
“लगता तेरा मन है आज टपूसी खाने का”। गुलवंत भी कुर्सी पर बैठता हुआ बोला।
“ओए ना-ना भाई तू बस एक जगह बैठ जा यही काफी है”।उस आदमी ने फिर से कहा।
“छोड़ो यार अब हंसी मजाक, ओह गुलवंत यार हम तो इस बार बलवंत को सरपंच बनाने की सोच रहे है, बस इसीलिए आए है”। सरपंच ने दोनों को टोकते हुए कहा।
“आप नहीं लड़ रहे इस बार इलेक्शन”? गुलवंत अपनी मूछों पर हाथ फेरता हुआ बोला।
“नहीं यार अब और नहीं कोर्ट कचहरी में जाया जाता। अब तो आराम करेंगे बस बलवंत को सरपंच बनवा दे एक बार”। सरपंच ने चाय का कप रखते हुए कहा।
“अच्छा भई बलवंत हुन चलदे आ असी, ते तू अपनी तैयारी रख सरपंच बनने के लिए”। कहते हुए सरपंच उठ खड़ा हुआ, और धीरे-धीरे सभी मेंबर भी जो साथ में आए थे।
“और घबराई ना, कोई बिहारी या यूपी का भईया ढूंढ देंगे तेरे खेत और घर के काम के लिए”। जाते हुए फिर से एक आदमी ने बलवंत से कहा और सभी हंसते हुए बाहर आ गए।
इधर राजवंत ने भी बर्तन उठाए और रसोई में ले जा के साफ करने लगी, तो वही सरपंच और उसके साथ आए बंदों और गुलवंत के जाने के बाद बलवंत अंदर आता है तो एक दम से आवाज लगाते हुए कहता है-
“ओह सरपंचनिये, किथे चली गई”? बोलता हुआ बलवंत सीधा रसोई में आ जाता है।
“पहला जीत ता लाओ सरपंच का चुनाव, हुने कैसे सरपंचनी हो गई मैं”? राजवंत बलवंत को देख कर बोली।
“जीत लेंगे, भला सरपंची जीतनी भी कोई बड़ी बात है, और ओह भी मेरे लई जो ग्रामीण सोसायटी का प्रधान रहा है”। कहते हुए बलवंत राज कौर के नजदीक आ गया।
“इतनी छोटी बात है ता फिर इस बार एह सरपंच खुद क्यों नहीं लड़ रिहा, तेरे मोढे (कंधे) पे रख कर बंदूक क्यों चला रहा हैं”? राज कौर ने जैसे बलवंत को ताना सा मारा।
“उसे चलाने दे बंदूक, तू इस बंदूक का हल कर कोई”। बलवंत ने राज कौर की कमर पकड़ कर उसे अपने साथ सटाते हुए बोला। तो उसका खड़ा लंड राज कौर को अपने चूतड़ों में धंसता हुआ महसूस हुआ।
“छोड़ो भी, कोई आ जायेगा। जब देखो तब पीछे पड़े रहते हो”। राज कौर अपने चूतड़ों से ही बलवंत को पीछे को धकेलती हुई बोली।
“अरे कौन आएगा हुन, एक बार बस इस नू ढीला कर”। बलवंत फिर तो राज कौर दे नेड़े होके उस दी सलवार दे नाले (नाड़ा) नू हाथ नाल बाहर खींचता हुआ बोला।
“उउह, हटो भी, अपनी उम्र दा भी लिहाज करो, सफेद बाल आ गए है अब”। राज कौर ने बलवंत के हाथ को झटकते हुए कहा।
“उम्र दा लिहाज ही ता कर रिहा सी, पर लगता तुम ऐसे नहीं मानोगी”। कहते हुए बलवंत ने झटके से राजवंत के नाड़े को खोल दिया, और उसकी सलवार पैरो में जा गिरी।
इससे पहले कि राजवंत कुछ कर पाती, बलवंत ने अपना पजामा और कच्छा नीचे करते हुए कुर्ते को अपने दांतों में पकड़ लिया। आगे से और राजवंत की पीठ को आगे झुका कर चूतड़ों के ऊपर से उसकी कुर्ती उठा दी।
कुर्ती के उठते ही राजवंत कौर के गोरे मुलायम और गद्दे से नरम चूतड़ बलवंत के सामने थे, और बलवंत ने अपने 4.5-5 के कमजोर से लंड से एक धक्का दिया तो वो एक ही बार में राजवंत कौर की चूत में समा गया। पर भैंस जैसे गदराये जिस्म वाली पंजाबन को भला इससे क्या ही होने वाला था।
बलवंत पीछे से राज कौर की गरम चूत का एहसास लेते हुए धक्के मरने लगा, और राजवंत के नरम चूतड़ों को ख्रोंचते हुए चोदने लगा, जिस से राज कौर भी गरम हो कर हल्की सिसकियां लेने लगी।
लेकिन राज कौर को अभी इस पल का एहसास होना शुरू हो हुआ था कि इससे पहले ही 5-6 तेज धक्के लगाता हुआ बलवंत राज कौर की गर्मी के आगे पिघल गया, और उसके दुबले से पतले सफेद पानी की एक धार निकली जो राज कौर की फुद्दी के होंठो से बाहर फर्श पर गिरने लगा।
“आह्ह्ह मजा आ गया जट्टिये”। कहता हुआ बलवंत अपने कच्छे और पजामे को पहनता हुआ बाहर चला गया, और राजवंत वही पर खड़ी अपनी किस्मत और बलवंत को कोसती हुई देख रही थी। क्योंकि पिछले 15-16 साल से वह ऐसे ही अपनी अधूरी प्यास लिए अपनी सलवार का नाला बांधती आ रही थी।
और आज फिर राज कौर की आग को भड़का कर बलवंत बाहर निकल गया। पर राज कौर अपनी आग सुलगती में अपनी सलवार पहन कर फर्श को साफ कर रही थी।